महाराणा प्रताप भाग-1

महाराणा प्रताप भाग-1

उदय-सरोवर का तट !

तट से कुछ दूर हटकर घने वृक्षों की डालियों से आठ- दस घोड़े बंधे हुए थे| उनसे इधर एक वृक्ष की छाया में एक थकी आयु का तेजस्वी व्यक्ति खड़ा था| उसकी द्रष्टि सरोवर में तैर रहे बालकों और किशोरों का पीछा कर रही थी| उनके पास तैरने वालों के राजसी (शाही) वस्त्र रखे थे| कुछ तलवारें और भाले भी पड़े थे|

” अब बस करो, बच्चों!”

तेजस्वी व्यक्ति ने जोर से पुकारते हुए कहा| उनके सिर पर लम्बे-घुंघराले केश थे | दाढ़ी काफी लम्बी थी|बालों में अभी पूरी तरह सफेदी नहीं आई थी |





“बस थोड़ी देर और गुरुदेव!” तालाब में तैर रहे बालकों में सबसे बड़े ने उत्तर दिया —‘अभी तो तैरने का आनंद भी पूरा नहीं हुआ !’

“नहीं बच्चों !” तेजस्वी व्यक्ति ने, जो राजगुरु थे, कोमल स्वर में पुकारते हुए कहा— “अब बहुत देर हो चुकी है | उदयपुर से इतनी दूर हम महाराणा को बिना सुचना दिए ही आ गए है | महाराणा चिंता करते होंगे|अब निकल आओ बहार |”

“जो आज्ञा, गुरुदेव !” सबने कहा|

“देखता हूँ,सबसे पहले मेरे पास कौन पहुँचता है |” गुरुदेव कि आज्ञा पाकर सरे बालक तेजी से तैरकर किनारे कि ओर आने लगे | उन्हें देखकर गुरुदेव फिर बोले— “शाबाश ! शाबाश कुंवर शक्तिसिंह …. देखो -देखो कुंवर प्रताप तुमसे आगे निकलना चाहते है … अरे भाई सागरसिंह, यह क्या ? प्रताप को पीछे धकेलने कि चेष्ठा क्यों कर रहे हो? न-न, यह तो खेल है, खेल कि भावना से तैरो| आगे बढ़ने की कोशिश करो, पर दूसरों को धक्का या गिराकर नहीं| कुंवर सागर … अरे-अरे, वह छोटे कुंवर पीछे छुट गए! देखो भाई प्रताप, तुम कुंवर यागमल को सहारा देकर बहार ली आओ ! लगता है,कुंवर तैरते तैरते थक गए है!”कुंवर प्रताप ने तैरते हुए पीछे मुड़कर अपने छोटे भाई कुंवर यागमल को संभाल लिया |वह वास्तव में हांफ गया था| थोड़ी ही देर में सभी किनारे पर पहुँच गए|यागमल को लिए प्रताप भी बड़ी तेजी से किनारे आ लगा|

” सबसे पहले मै बहार आया, गुरुदेव!” कुंवर सागरसिंह ने अपनी बांह ऊपर उठाते हुए कहा|

“नहीं, मै!” कुंवर शक्तिसिंह ने विरोध करते हुए कहा|

“तुम दोनों साथ-साथ बहार आये हो !” राजगुरु ने दोनों की पीठ थपथपाते हुए कहा|

“और मै गुरुदेव?” प्रताप ने पूछा |

“तुम ही सबसे पहले पहुँचते, पर यागमल की सहायता करने के कारन इनके बाद आये|” राजगुरु ने कहा|

“भला यह भी कोई बात है!” कुंवर सागरसिंह ने कुछ कुढ़ते हुए कहा —“यह कैसे पहुँच जाता!गुरुदेव, आप हमेशा प्रताप का ही पक्ष किया करते है! जैसे सरे मेवाड़ में वही-वही ही है!”

“गुरुदेव ने झुंट ही क्या कहा है, सागर भैया!” झाला कुंवर मन्नाजी ने कहा— “अगर प्रताप यागमल की सहायता करने न मुड जाते, तो निश्चय ही वे सबसे पहले गुरुदेव के पास पहुँचते| क्यों, शक्ति भैया?” कुंवर मन्नाजी ने शक्तिसिंह की तरफ देखकर पूछा |

“मै कुछ नहीं कह सकता !” कुंवर शक्तिसिंह ने लापरवाही का भाव प्रगट करते हुए कहा |

“वह क्या कहेगा?” कुंवर सागरसिंह ने जैसे तुनककर कहा–“फिर वह या तुम मेरी बात काटने वाले होते कौन हो?”

“सागर भैया!” प्रताप ने आगे बढ़कर मीठे स्वर में कहा—“भैया, तुम ही सबसे पहले आये हो| मै अगर याग्मल भैया को पकड़ने न भी मुड़ता, तो भी तुम्ही पहले आते | अरे भैया, इसमें बिगड़ने की बात क्या है?”

“मुझे समझाने की कोई आवश्यकता नहीं!” सागरसिंह ने तुनककर कहा और अपने कपडे पहनने लगा|

“शांत बच्चों !” राजगुरु ने मुस्कुराते हुए कहा—” अरे तुम लोग भाई-भाई हो! जीवन-भर तुम लोगों को मिलकर मात्रभूमि की रक्षा करनी है| कंधे से कन्धा मिलकर चलना है| भाइयों में मुकाबले की भावना अच्छी नहीं होती | तुम सब अब काफी बड़े हो गए हो, समझदार हो !” फिर वे कुंवर सागरसिंह से बोले— ” तुम्हारा स्वभाव कुछ विचित्र-सा होता जा रहा है, कुंवर सागर! सहनशीलता ही सच्ची शक्ति है| वह शक्ति अनुशासन और सबके प्रति मान-सम्मान का भाव रखने से पैदा होती है | प्रताप तुम्हारा बड़ा भाई है, कुंवर !”

पर कुंवर सागरसिंह ने कोई उत्तर नहीं दिया !

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One Response

  1. Maria says:

    I thought I’d have to read a book for a disvocery like this!

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