महाराणा प्रताप भाग-10
“सब कुछ आपका रहेगा।” दुसरे विदेशी ने कहा।
“तब….तब जल्दी लाओ….लाओ, कहाँ करने है हस्ताक्षर ? तब तो जहाँ मर्जी हो और जितने चाहो, हस्ताक्षर करवा लो।”
दोनों विदेशियों ने वह संधि-पत्र जैसा यागमल के सामने फैला दिया। एक ने कलम भी हाथ में थमा दी और कहा-“यहाँ हस्ताक्षर कर दीजिये!”
लड़खड़ाते हाथों से कलम थामकर यागमल ने सामने फैले कागज की तरफ देखा।
नृत्य-संगीत में पहले के कहीं अधिक जोश आ चूका था। दरबारी बेहोशी की हालत में ‘वाह-वाह’ करते झूम रहे थे। किसी को कुछ भी पता नहीं था, कि उनके शासक को फंसाने, देश को गुलाम बनाने का षड़यंत्र किस प्रकार पूरा किया जा रहा है।
यागमल ने दस्तखत करने के लिए कलम उस संधि-पत्र पर राखी, तभी सुनाई दिया—
“बंद करो यह नृत्य-गान!”
आवाज से साथ ही चंदावत कृष्ण सिंह, मेवाड़ के महामंत्री, सामंत, और राव, सरदार भीमसिंह और उनके साथ कुछ अन्य राजपूतों ने प्रवेश किया। सभी के हाथों में खुली तलवारें थी।
“देश के इस संकट काल में कायरता और विलासिता का संचार करने वाला यह नृत्य-गान बंद करो!” आते ही चंदावत कृष्ण सिंह ने एक बार फिर कड़ककर कहा।
नर्तकियों के पाँव जहाँ के तहां रुक गए।
बाजे बजाने वालों के हाथ भी वहीँ थम गए।
यागमल के हाथों से कागज और कलम भूमि पर गिर पड़े। वह सकपकाकर लडखडाता हुआ-सा खड़ा हो गया।
विदेशी दूत फटी आँखों से एक-दुसरे की तरफ देखने लगे। शराब पिलाने वालियों की सुराहियाँ और प्याले ‘झन्न’ कर निचे गिरे और टूट गए।
दरबारियों का नशा एक पल में ही हिरन हो गया।
“विलासी ! कायर ! कुल कलंकी !” दांत पिसते हुए चंदावत कृष्ण सिंह आगे बढे–“सिसोदिया वंश की लाज को शराब की प्यालियों और घुंघरुओं में डुबो देने वाले यागमल ! बाप्पा रावल के इस पवित्र सिंहासन को और अधिक कलंकित करने का अब तुम्हे कोई अधिकार नहीं !”
“मै-मै पिता द्वारा दिए राज्य का क़ानूनी अधिकारी हूँ ! कौन हो—कौन हो तुम लोग ?” यागमल ने लडखडाती हुई जबान से पूछा।
“पिता द्वारा दिए गए राज्य के क़ानूनी अधिकारी, चुपचाप सिंहासन से उतारकर यहाँ, हमारे पास, साधारण प्रजाजनों के बीच आकर खड़े हो जाओ।” झालौर राव ने आगे बढ़ते हुए कहा—“आज मात्रभूमि को घुंघरुओं की नहीं, तलवारों और शस्त्रों की झंकार की आवश्यकता है। पिता द्वारा दिया राज—हूँ ! परंपरा के नाम पर अन्याय को नहीं पनपने दिया जा सकता !”
“ये लोग कौन है ?” सामंत भीमसिंह ने विदेशियों की ओर संकेत करते हुए पूछा। फिर धरती पर गिरे कागज को उठाकर कहा–“और यह सब क्या है ?”
चंदावत कृष्ण सिंह , महामंत्री और झालौर राव ने पहले विदेशियों को देखा, फिर उस कागज को। उन सभी की आँखें खुली की खुली रह गई, क्योंकि संधि-पत्र के नाम पर उस पत्र में सारे मेवाड़ का अधिकार अकबर को सोंपने और उसके अधिक सामंत बनकर रहने की बात उसमे लिखी थी।
“देखिये, महामंत्री जी !” चंदावत कृष्ण सिंह ने वह कागज मेवाड़ के महामंत्री की ओर बढ़ाते हुए कहा—“तभी आपने हमें स्वर्गीय राणा की इच्छा का सम्मान करने के लिए कहा था। देखिये, देश के रहे-सहे सम्मान को मिट्टी में मिलाने के लिए क्या-क्या षड़यंत्र चल रहे है।”
महामंत्री ने उक संधि-पत्र को ध्यान से देख। कुछ क्षणों तक वे गंभीर रहे। फिर धीरे से बोले—
“वास्तव में वह मेरी भूल थी, चंदावत सरदार !” वे फिर एक क्षण के लिए मौन हो गए। फिर बहुत धीरे ओर गंभीर स्वर में बोले—“अपनी उस भूल का प्रायश्चित तो अब करना ही होगा।” फिर वे यागमल की तरफ मुड़े–“कुंवर यागमल, मैंने एक दिन भूल से तुम्हे महाराज कहा था। यह सपना भी देखा था कि तुम्हे बाप्पा रावल का योग्य वंशज ओर महाराणा बनाऊंगा। पर आज अपने ही हाथों से मै उस अधिकार को छीनता हूँ ।” और फिर वे गरज उठे—“कायर ! विलासी यागमल ! इधर आ जाइये !” फिर आगे बढ़कर उन्होंने यागमल का हाथ पकड़कर खिंच लिया ।
“क्या–क्या ? यह क्या–आ ?” यागमल घिसटते हुए दोनों विदेशियों की तरफ देखा—“कहाँ है—कहाँ है महाबली सम्राट अकबर…..अकबर !”
One Response
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