महाराणा प्रताप भाग – 15

महाराणा प्रताप भाग – 15

” हाँ, महाराणा !” महामंत्री ने कहा –“शिकार के लिए अनेक मचान तैयार है । हांक लगाने वाले जंगल मैं चारों  ओर फ़ैल चुके  हैं ।” फिर उन्होंने सामने वाले टीले की तरफ इशारा करते हुए कहा — “वह नगाड़ा वहां रखा है, उस पर चोट पड़ते ही जंगल में हांक लगनी आरम्भ हो जाएगी । अब जैसी आप आज्ञा  दें ।””राजगुरु !”

प्रताप ने राजगुरु की तरफ देखा ।

राजगुरु ने आगे बढकर परम्परा के अनुसार कुछ मंत्र पढ़े । शस्त्रों  की पूजा हुई । उन पर अक्षत (चावल) और रोली-चन्दन आदि छिडके गए । उसके बाद राजगुरु ने महाराणा प्रताप के मस्तक पर टीका  लगाया । फिर शक्तिसिंह का और उसके बाद  बारी-बारी सभी का अभिषेक किया ।

“वीर राजपूतों !” राजगुरु ने जैसे ललकारते हुए ऊँचे स्वर में कहा — कई वर्षों से बंद अहेरिया का यह उत्सव आज फिर से मनाया जा रहा है । यह उत्सव राजपूतों की शक्ति और वीर-पूजा का प्रतिक है । इस उत्सव के बहाने से राजपूत अपनी तलवार की जांच किया करते है कि  उनमें कितना पानी है । भयानक जंगली जानवरों को शत्रुओं का प्रतिक मानकर अपनी भुजाओं की शक्ति और युद्ध-विद्या में कुशलता की परीक्षा करते हैं । इसका उद्देश्य कोरा मनोरंजन नहीं हुआ करता । आपको एक युग से सोई वीरता और न्याय की रक्षा के लिए युद्ध की सोई भावना को जगाना है । बढ़ो ! शक्ति के पुजारियों ! मात्रभूमि की पराधीनता के कलंक को मिटाने की अदम्य लालसा लेकर बढ़ो !” कहते-कहते राजगुरु ने टीले की तरफ खड़े व्यक्तियों की तरफ इशारा किया ।



इशारा पाते ही नगाड़ा ‘ढम -ढम’ कर जोर-जोर से बजने लगा । उसकी आवाज के साथ-साथ ही राजपूतों के शस्त्रों की झंकार सुनाई  देने लगी ।

“प्रताप एक दल के साथ पूर्व की ओर  जायेंगे ।” राजगुरु ने फिर कहा –“कुंवर शक्तिसिंह दूसरी तरफ जायेंगे । झाला मन्ना जी और चंदावत सरदार कृष्णसिंह उत्तर की तरफ रहेंगे । राठौर तेज सिंह राणा के साथ रहेंगे । बस, बढे चलो, वीरो । हांक देने वालों के स्वर सुनाई देने लगे है । जंगल का शान्त वातावरण जाग उठा है । बढ़ो !”

“हम मचान पर नहीं जायेंगे, राठौर तेजसिंह !” महाराणा ने युवक तेजसिंह की तरफ देखा । राठौर तेजसिंह बनास के तट पर बसे सुर्यमहल नामक दुर्ग के अधिपति स्वर्गीय तिलकसिंह का बेटा  था । उसकी वीरता के सभी कायल थे ।

“ठीक है, महाराणा !” तेजसिंह ने कहा –“हमारे पाँव ही हमारे मचानों का काम  देंगे ।”

महाराणा को पैदल ही जाते देख कुंवर शक्तिसिंह तथा अन्य लोगों ने भी मचानों पर चढ़ने का विचार छोड़ दिया । सभी इधर-उधर जंगल में बिखर गए ।

शेरों, बाघों, अरनों  और जंगली सूअरों की दहाड़ !

सारा जंगल काँप उठा ।

उस पर राजपूतों की गर्जना और हुंकार, ‘वह मारा’ की ललकार चारों  ओर  गूंजने लगी ।

दोपहर ढली ।

जैसे कोई भी थकने का नाम नहीं लेना चाहता था । दिन ढलने के साथ-साथ अहेरिया के उत्सव में और भी अधिक जोश का रंग भरता जा रहा था ।

“वह रहा एक जंगली सूअर, महाराणा !”

सहसा तेज सिंह ने एक तरफ इशारा करते हुए महाराणा प्रताप से कहा । वे लोग घने जंगल में काफ़ी  दूर निकल आये थे ।

“कहाँ —वह ! अच्छा -अच्छा !’ महाराणा ने भाला  तानकर उसका पीछा करते हुए कहा –“तुम पीछे-पीछे आओ, तेज ! मैं भागकर भाले से इसका शिकार करूँगा !”

“जल्दी कीजिये फिर !” तेजसिंह ने कहा — “कहीं वह सूअर झाड़ियों में न छिप जाये !”

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2 Responses

  1. jay maharana pratapsing .

  2. Naser says:

    Cool! That’s a clever way of looikng at it!

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