महाराणा प्रताप भाग-30

“तो आप लोग वहाँ बैठे हुए आखिर क्या कर रहे हैं ?” अकबर ने तनिक क्रोध में कहा- “इन छोटे-छोटे किलों की रक्षा के लिए सल्तनत (साम्राज्य) की ओर से जो इतना रुपया खर्च किया जा रहा है, वह क्या इसीलिए कि आप लोग मिट्टी के माधो बने रहें ! इसी वीरता पर घमण्ड था आपको… हूँ !
प्रताप ! प्रताप ! इतने सारे मिलकर एक बाग़ी को काबू नहीं कर पा रहे डूब मरने की बात है यह प्रताप न हो गया, कोई हौआ हो गया…!’
इसी समय मानसिंह ने वहाँ प्रवेश किया । उसने अकबर की अन्तिम बात सुन ली थी। वह आते-आते बोला- “हौआ ! प्रताप अपने-आपको पता नहीं क्या समझने लगा है, महाबली ! वह पता नहीं किस हवा में रहता है !”
“आइये, राजा साहब ! ” अकबर ने मानसिंह का स्वागत करते हुए कहा- “दक्षिण की यह विजय मुबारक हो !”
“महाबली का प्रताप अमर रहे !” मानसिंह ने उचित स्थान पर बैठते हुए कहा- “मैं तो अपने-आपको अब उसी दिन मुबारकबाद का हक़दार समझँगा, जिस दिन प्रताप का सर कुचल लूंगा !”
‘क्यों, आप तो उसे समझाने जाने वाले थे ? ” अकबर ने मानसिंह से पूछा।
“लातों के भूत बातों से नहीं माना करते, महाबली सम्राट् !” मानसिंह ने घृणा जताते हुए कहा – “प्रताप ने मुट्ठी भर सेना और हथियार क्या इकट्ठे कर लिये हैं, वह समझने लगा है कि मैं अब जिस किसी का भी अपमान करने का हक़दार हो गया।
“उसने आपका अपमान किया ?” अकबर ने प्रश्न किया । “मेरा ही नहीं, महाबली सम्राट् अकबर का अपमान किया। जिस सम्राट् का एक इशारा आज सारे भारत के भाग्य को बना या मिटा सकता है, उसे मेरे मुँह पर गालियाँ दीं, महाबली !” मानसिंह ने उत्तर दिया ।
“यही तो मैंने भी कहा था, सम्राट् !” सहसा कुँवर शक्ति- सिंह ने कहा – ” प्रताप इतना घमण्डी है कि अपनी ज़बान पर भी काबू नहीं रख सकता ।”
“शक्तिसिंह ठीक कहता है, सम्राट् !” राणा सागरसिंह ने कहा- “मेरे दूत अक्सर मुझे बताया करते हैं, कि वह गाँव- गाँव में, चौराहे-चौराहे पर खड़ा हो-होकर मुगल सल्तनत को गालियाँ दिया करता है !”
“उसकी हिम्मत इतनी बढ़ गई है !” कई स्वर एक साथ गूंज उठे।
“हूँ !” अकबर ने अपना मौन तोड़ते हुए कहा- “यह उसकी महानता है, वीरता और साहस है कि वह गाँव-गाँव और चौराहे-चौराहे पर खड़ा होकर इतने विशाल मुगल साम्राज्य के विरुद्ध ज़बान खोलने की हिम्मत रखता है । एक आप लोग हैं कि ज़रा-ज़रा-सी बातों को लेकर दिल्ली या आगरा (राजधानी) की ओर भागते हैं; मुल्क का रुपया, समय और सियासत (राजनीति) को बर्बाद तथा गन्दा करते हैं । हम प्रताप के साहस की तारीफ़ किये बिना नहीं रह सकते !”
“सम्राट् !” कइयों के मुँह से निकला। सभी हक्के-बक्के से सम्राट् का मुँह देखते रह गये ।
“जहाँ तक गालियाँ देने का सवाल है अकबर ने फिर कहा- “प्रताप किसी को गालियाँ नहीं दे सकता। हाँ, वह ललकार सकता है, चुनौती दे सकता है, क्यों राजा मानसिंह ! ” “और हम उसकी चुनौती को स्वीकार कर सकते हैं, सम्राट् !” मानसिंह ने कुछ उखड़ते हुए कहा।
“यह हुई न बात !” अकबर ने कहा।
इसी समय द्वारपाल ने आकर झुकते हुए कहा – “द्वार पर एक भाट खड़ा है, जहाँपनाह । हुज़ूर की सेवा में उपस्थित होना चाहता है ।”
“कहाँ से आया है वह ?” अकबर ने पूछा ।
“मेवाड़ से आने की बात कह रहा था, हुजूर !” द्वारपाल ने कहा।
“मेवाड़ से !” अकबर ने एक क्षण तक कुछ सोचा और फिर कहा- “आने दो।”
द्वारपाल चला गया।
“सम्राट् अकबर शाह का इक़बाल बना रहे।” भाट ने भीतर आते हुए कहा । उसने अकबर के सामने सिर नहीं झुकाया।
सभी ने भाट की तरफ विचित्र दृष्टि से देखा। उसने सिर पर रेशमी साफा (पगड़ी) बाँध रखा था। वह बिल्कुल निडर भाव से खड़ा था।
“तुमने महाबली सम्राट के सामने सिर नहीं झुकाया ?” मानसिंह ने कुछ क्रोध से पूछा।
“सिर पर महाराणा प्रताप की दी गई पगड़ी बंधी है, राजा साहब !” भाट ने निडर भाव से कहा – “ऐसी हालत में यह सिर किसी अन्य के सामने कैसे झुक सकता है ?” “क्या — आ ?” क्रोध-भरी कई आवाजें एक साथ गूंज उठीं। कई हाथ तलवारों पर चले गये।
“यह सिर एक बार प्रताप की प्रशंसा में झुक चुका है। अब यह किसी के सामने नहीं झुक सकता । इस सिर के झुकने का मतलब होगा, प्रताप की पगड़ी का झुकना, और प्रताप टूट सकता है, उसकी पगड़ी कभी किसी के आगे झुक नहीं सकती।” “चुप रहो, कम्बख्त !” मानसिंह जैसे गरज उठा।
“क्यों, राजा साहब ! भाट ने निडरता से कहा – “मैं ही गुस्सा उतारने के लिए रह गया हूँ, क्या ? प्रताप के सामने सुना है, तुम्हारी घिग्घी बंध गई थी – क्यों ? ”
“आह ! गिरफ्तार कर लो इसे।” मानसिंह चीख उठा। वह आगे बढ़ा।
“शांत, राजा साहब ! अकबर ने बीच में बोलते हुए कहा – “आपका गिरफ्तार करने का डर इस निडर भाट का मुँह बन्द न कर सकेगा। ऐसे साहसी लोग ही किसी देश और राज्य की आन हुआ करते हैं।”
मानसिंह को शांत करने के बाद अकबर ने भाट से पूछा – “तुम क्या चाहते हो ?”
“मैं सम्राट् को अपनी कविता सुनाना चाहता हूँ ।” भाट ने उत्तर दिया।
“किस प्रकार की है तुम्हारी कविता ?” सम्राट् ने फिर प्रश्न किया।
“कवि किसी की खुशामद करना नहीं जानता, सम्राट् !” भाट ने निडर भाव से कहा – “मेवाड़ में रहते हुए मैंने जो उसका नया जागृत रूप देखा है, उसी को अपनी कविता का आधार बनाया है।”
“हम सुनेंगे तुम्हारी कविता।” सम्राट् अकबर ने मुस्कराते हुए कहा – “सुनाओ !”
भाट कविता-पाठ करने लगा – “जागा फिर मेवाड़, समय की सुनकर तरुण पुकार !”
कविता में प्रताप की प्रशंसा की गई थी। उसके कारण मेवाड़ में जो नया जीवन-संचार हुआ था, उस सबका वर्णन किया गया था। अकबर सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ। कविता-पाठ समाप्त हो जाने पर अकबर ने पूछा – “तुम्हारे प्रताप आजकल क्या कर रहे हैं ?”
“युद्ध की तैयारी !” भाट ने अभिमान से कहा – “वह सूरमा टूटने की तैयारी कर रहा है। राजा मानसिंह से उसने कह दिया था न ! अब अपनी सेना लेकर वह अरावली के राजपथ पर आ गया है। वह निरन्तर हल्दीघाटी की ओर बढ़ रहा है। मुझे प्रताप ने कहा था कि मैं राजा मानसिंह तक उनका यह समाचार पहुँचा दूं। सो मानसिंह कान खोलकर सुन लें ! ”
“हुँ !” अकबर ने मानसिंह की तरफ देखा। फिर कहा – “राजा साहब, पहले तो इस कवि महाराज को इनाम दिलवाइये, फिर आगे सोचा जायेगा ।” मानसिंह चल दिया।
“सम्राट् अकबर शाह का इक़बाल बना रहे।” भाट ने कहा और मानसिंह के पीछे चला गया।
थोड़ी देर में मानसिंह लौट आया।
“कुँवर शक्तिसिंह !” अकबर ने कहा – “अब आपको विशाल मुगल सेना के आगे-आगे चलना होगा। देखिये, प्रताप की पगड़ी झुकनी ही चाहिए।”
“मैं तैयार हूँ, सम्राट्।” शक्तिसिंह ने कहा।
“सेनाध्यक्ष राजा मानसिंह ! ” अकबर ने कहा- “यह युद्ध निर्णयात्मक होना चाहिए। हमारे प्रतिनिधि के रूप में शहजादा सलीम आपके साथ रहेगा। महावत खाँ और यहाँ उपस्थित सभी सेनानायक आपके अधीन रहेंगे। राणा सागरसिंह भी साथ रहेंगे। अब आप देख लीजिये ! अजमेर तक हम स्वयं भी साथ चलेंगे। हो सकता है, इस जमाव से प्रताप दब जाये और लड़ने का विचार छोड़ दे !”
“कोई कसर न छोड़ी जायेगी, सम्राट् !” उसके बाद सभा भंग हो गई।