महाराणा प्रताप भाग-29

महाराणा प्रताप भाग-29

Maharana Pratap

उदयसागर का तट ।

सुन्दर शामियाने तने थे  भीतर राजसी ठाठ-बाट से बैठने आदि की व्यवस्था थी। सोने-चाँदी के बर्तनों में भोजन की व्यवस्था की जा रही थी।

प्रताप और मानसिंह एक बार मिल चुके थे। प्रताप के सामने मानसिंह ने भी वही प्रस्ताव रखे थे, जो उसके पिता राजा भगवानदास और राजा टोडरमल रख चुके थे। प्रताप के सामने मानसिंह ने कुँवर अमरसिंह के साथ अपनी बहिन के विवाह का प्रस्ताव भी रखा, पर राणा ने बड़ी नम्रता से इन्कार कर दिया। कह दिया, जब तक मेवाड़ स्वाधीन नहीं हो जाता, अमर की विवाह करने की इच्छा नहीं । अकबर के साथ मित्रता के सम्बन्ध में भी राणा ने स्पष्ट उत्तर दिया-

“मित्रता समानता के आधार पर ही हो सकती है, दब या झुककर नहीं।”

बातचीत बड़े ही सद्भावनापूर्ण वातावरण में हुई।

भोजन का समय हो गया।

खाना सजा दिया गया। मानसिंह अपने एक-दो विशेष साथियों के साथ भोजन के लिए आ बैठे। कुँवर अमरसिंह बड़ी तत्परता से खाने की व्यवस्था कर रहे थे।



“महाराणा अभी तक नहीं आये, कुँवरजी ?” मानसिंह ने कुँवर अमरसिंह से प्रश्न किया।

“वे आते ही होंगे, राजा साहब !” कुँवर अमरसिंह ने नम्रता से उत्तर दिया – “आप भोजन प्रारम्भ कीजिये, ठण्डा हो रहा है।”

“यह कैसे हो सकता है, कुंवर अमरसिंह !” मानसिंह ने फिर कहा – “हमारे मेजबान (मेहमानों का प्रादर करने वाले) तो आएं न, और हम उनकी अनुपस्थिति में भोजन कर लें ! ‘

“वे किसी आवश्यक कार्य में उलझ गये होंगे, राजा साहब ! ” अमरसिंह ने कहा – “आप भोजन कीजिये। मैं तो हूं न उनका प्रतिनिधि !

“नहीं।” मानसिंह ने सिर हिलाते हुए कहा – “आप उनके पास किसी आदमी को भेजिये। उनके आने पर ही भोजन किया जायेगा। ज़रा जल्दी कीजिये।”

“जैसी आपकी इच्छा।” अमरसिंह ने कहा। फिर एक सेवक को महाराणा को बुला लाने के लिए भेजा। जब काफी देर तक वह लौटकर न आया, तो मानसिंह ने तनिक उकताए स्वर में फिर कहा –

“देखिये, कुँवर साहब ! आप स्वयं जाकर महाराणा को बुला लाइये ! आप यह निश्चित जानिये कि उनकी अनुपस्थिति में हम लोग भोजन नहीं कर सकते।” कहकर मानसिंह उठने लगे।

“नहीं-नहीं, राजा साहब ! ” अमरसिंह ने प्रार्थना-भरे स्वर में कहा – “मैं स्वयं जाकर देखता हूँ कि क्या बात है !”

कहकर कुँवर अमरसिंह बाहर निकल गये। थोड़ी देर बाद ही उन्होंने विवशता के भाव में कहा –

“क्षमा करें, राजा साहब ! ” पिताजी के पेट में अचानक दर्द होने लगा है। अतः वे आपके साथ भोजन न कर सकेंगे।”

“हमारे साथ भोजन न कर सकेंगे, या भोजन करेंगे ही नहीं ?” मानसिंह ने ज़रा व्यंग्य से पूछा।

“मेरा मतलब है, वे भोजन करना ही नहीं चाहते। उनके पेट में बहुत दर्द है।”.

“बहुत दर्द है हुँ: ! ” कहते हुए मानसिंह उठकर खड़े हो गये – “मैं इस दर्द का कारण भली प्रकार समझता हूँ, कुँवर अमरसिंह ! यह हमारा स्पष्ट अपमान है। दर्द एक बहाना मात्र है। प्रताप हमें नीच और अधर्मी समझता है। वह केवल अपने आपको ही वीरता, धर्म और जाति का ठेकेदार मान बैठा है…. ओह ! मैं इस अपमान को सहन नहीं कर सकता। इस अपमान का हिसाब पाई-पाई चुकाया जायेगा।”

“राजा साहब ! ” अमरसिंह ने अचकचाकर कहा।

“जाने दो, अमर ! – सहसा राणा प्रताप ने सामने आते हुए कहा। उनके साथ सामन्त भीमसिंह, राठौर तेजसिंह आदि सरदार भी थे। राणा फिर बोले – “ऐसे स्वाभिमानियों के साथ मैं कभी भोजन नहीं कर सकता, जिनमें अपनापन नहीं। दूसरों के तलवे चाटना, खुशामद करके पेट भरना, चाँदी के चमकीले टुकड़ों के लिए देश की स्वतन्त्रता और जातीयता के स्वाभिमान को भी दूसरों के पास गिरवी रख देना ही जिनका धर्म और मानवता है – नहीं, प्रताप ऐसे लोगों के साथ बैठकर कभी भोजन नहीं कर सकता।”

“यह तुम्हारा घमण्ड है, प्रताप ! अब यह अधिक दिनों तक बना नहीं रह सकता – समझे !” मानसिंह ने भी तैश में आते हुए कहा।

“मुझे समझाने की आवश्यकता नहीं है, राजा साहब ! ज़रा अपने मन के आईने में झाँककर देखिये, देश और राष्ट्र की पराधीनता तथा पतन का कारण आप जैसे लोग ही हैं, या नहीं। मैं मानवता को सबसे अधिक महत्त्व देता हूँ, पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि हम अपनी अच्छी मर्यादाओं का भी ध्यान न रखें। अपनी बहू-बेटियाँ इसलिए किसी अन्य के हवाले कर दें कि वह शासक है, या बलवान है ! ऐसा करने से हमें पदवियाँ प्राप्त हो सकेंगी, मान-सम्मान मिल सकेगा ! यह गिरावट है, राजा मानसिंह ! आपमें यदि कुछ जातीय और राष्ट्रीय स्वाभिमान होता, तो प्रताप को गले लगा लेता। पर आप लोगों ने अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए, जिस प्रकार के कार्य कर रखे हैं, प्रताप का मानव उसे कभी गले नहीं लगा सकता। मुझे खेद है, राजा साहब !”

“हो सकता है, हमने वह सब आप लोगों के सम्मान के लिए ही किया हो।” मानसिंह बोला- “हो सकता है कि अब भी हम सब कुछ आप लोगों के सम्मान के लिए ही कर रहे हों। पर खेद है, आप समय की नाड़ी को पहचानना नहीं चाहते।” मानसिंह ने अपने घोड़े पर सवार होते हुए फिर कहा- “यदि मैंने इस अपमान का बदला न चुकाया, तो मानसिंह नाम नहीं ! प्रताप के प्रताप को मिट्टी में मिलाकर ही मैं अपनी मूंछों को ताव दूंगा।”

“पर आप लोगों की मूंछें रही ही कहाँ हैं !” सहसा राठौर तेजसिंह ने कहा।

“आह ! ” मानसिंह गरजा – “इसका उत्तर अब युद्धभूमि में तलवार से दिया जायेगा। सुन लो प्रताप, मेवाड़ पर शासन कर सकने का तुम्हारा सपना अब कभी भी पूरा नहीं होगा । तूने अन्न की थाली के सामने से मुझे अपमानित करके उठाया है, मैं तुझे दाने-दाने के लिए मुहताज कर दूंगा। युद्ध ! भयानक युद्ध ! नहीं, अब कोई चारा नहीं ! ”

“मैं प्रसन्नता और उत्सुकता से उस दिन की प्रतीक्षा करूँगा, राजा मानसिंह ! तुम्हारी इस केंची की तरह चलती जवान का उत्तर अब युद्धभूमि में ही दिया जायेगा।”

“हाँ-हाँ, सारे हिसाब-किताब युद्ध में ही बेबाक किये जायेंगे।” मानसिंह ने कहा और घोड़े को एड़ लगा दी।



“युद्ध में अपने फूफा अकबर को भी अवश्य साथ लाना, राजा साहब !” सहसा सामन्त भीमसिंह ने चिल्लाकर कहा – “फूफा अकबर को साथ लाना न भूलना- हाँ !”

मानसिंह ने एक बार गर्दन मोड़कर पीछे की तरफ देखा और गुस्से में भुनभुनाता चला गया ।

“हुँ: ! ” महाराणा ने उपेक्षा से कहा। फिर कुँवर अमरसिंह की तरफ देखते हुए आदेश दिया- “इन बर्तनों को उठवाकर कहीं बाहर फेंक दिया जाये। इस स्थान को खूब धुलवाया जाये, ताकि स्वार्थी देशद्रोहियों और खुशामदियों की गन्ध तक भी यहाँ न रह जाये ! ”

महाराणा के आदेश का पालन किया गया ।

अब युद्ध निश्चित था। अतः राणा अपने सामन्त-सरदारों के साथ मिलकर योजना बनाने और तैयारी करने लगे। सारे लोगों को कमलमीर के दुर्ग में एकत्रित होने की घोषणा कर दी गई। सभी कार्य योजनाबद्ध रूप में होने लगे।

अपमानित मानसिंह आगरे पहुँचा। बदले की भावना से उसका रोम-रोम जल रहा था। वह बिना विश्राम किये सीधा अकबर के विशेष मन्त्रणागार में जा पहुँचा।

अकबर उस समय मन्त्रणागार में ही बैठा था। कुँवर शक्ति सिंह, गाजी खाँ, गयासुद्दीन अली, राजा जगन्नाथ कछवाहा, महावत खाँ, माधवसिंह कछवाहा, शाहबाज़ खाँ, अबदुर्रहीम खान-खाना, राजा लूणकरण तथा चित्तौड़गढ़ के नाममात्र के राणा सागर सिंह आदि प्रमुख सेनानायक तथा सहायक वहां मौजूद थे। शाहजादा सलीम भी उनकी बगल में बैठा था। सागर सिंह कह रहा था –

“चित्तौडग़ढ़ पर आक्रमण करने की प्रताप ने पक्की योजना बना रखी है, सम्राट ! वह किसी भी समय आक्रमण कर सकता है। उसका प्रभाव सारे मेवाड़ राज्य में दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। हमारे बहुत सारे सहायक भी उसकी बांतों में आकर हमारा साथ छोड़ गए है। उसने विशाल सेना इकट्ठी करली है। बहुत सारे पठान और अफगान सरदार भी उसकी सहायता के लिए तैयार हो गए है। यदि जल्दी ही कोई कदम न उठाया गया, तो चित्तौड़गढ़, उसके बाद उदयपुर के हाथ से निकल जाने का पूरा खतरा है।”



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