महाराणा प्रताप भाग-28
प्रातःकाल का समय था।
वृक्षों के पत्तों से छन-छनकर प्रातःकाल के सूर्य की किरणें महाराणा को झोंपड़ी पर पड़ रही थीं। वृक्षों के एक झुरमुट में महाराणा प्रताप ध्यान में मग्न होकर बैठे थे। प्रतिदिन उनका यही कार्यक्रम रहता। वे काफी देर तक समाधि लगा- कर अपना नित्य-कर्म किया करते। आसपास का वातावरण काफी सुहावना था।
“ओं नमः शिवाय !” कहते हुए महाराणा उठे और झुर-मुट से बाहर आ गये। उन्होंने उगते सूर्य को नमस्कार किया। फिर जल चढ़ाया। कुछ देर तक झुककर खड़े रहे। फिर वहाँ से चलकर अपनी झोंपड़ी के सामने वाले पहाड़ी चबूतरे पर आ बैठे ! वहाँ चन्दावत कृष्णसिंह, सामन्त भीमसिंह, राठौर तेजसिंह, भीलराज, मेवाड़ के महामन्त्री प्रादि पहले से ही बैठे उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उन सबने उठकर महाराणा का अभिवादन किया। फिर सभी अपने-अपने स्थानों पर बैठ गये।
“कहिये, चन्दावत !” महाराणा ने गम्भीरता से कहा- “आज सुबह-सुबह आप लोगों ने क्यों कष्ट किया ?”
“परिस्थितियाँ दिन-प्रतिदिन भयानक होती जा रही हैं, महाराणा !” चन्दावत कृष्णसिंह ने कहा-‘आप क्या योजना बना रहे हैं ? मुगल सैनिक टुकड़ियों के उत्पात बढ़ते जा रहे हैं। जल्दी ही इन्हें रोकने का कोई उपाय न किया गया, तो प्रजा का मनोबल ढीला पड़ जायेगा !
“सारा देश अब युद्ध चाहता है, महाराणा !” सामन्त भीमसिंह ने कहा-“क्योंकि उसके बिना मनोबल का ऊँचा होना कठिन है।”
“आप लोगों की इच्छा के अनुसार ही कार्य किया जायेगा।” महाराणा बोले- “पर अपनी तैयारियाँ किस प्रकार चल रही हैं ?”
“सारा मेवाड़ अपमान का बदला लेने के लिए उबल रहा है, महाराणा !” चन्दावत कृष्णसिंह ने कहा- ‘बेदनोर के राठौर, सेंगर राजपूत, कैलवा के जगावत क्षत्रिय, दैलवारा के झाला सरदार, कोठारी और बेदावा के चौहान, बिजली के पंवार-सभी आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे हैं।”
“और भी महाराणा !” भीलराज ने कहा-“दक्षिण की सारी धनुषधारी भील जातियाँ, पूरब की मीर जातियाँ और पश्चिम के वीर मीना भी आपकी आज्ञा पर प्राणों की बाजी लगा देंगे !”
“जागो हे मेवाड़ मनस्वी !
समय नहीं है अब सोने का,
उठ, रण-साज सजा ले !
सीमाएं हैं सुलग रहीं जब,
तू भी शस्त्र उठा ले !
सजा आरती तलवारों की,
प्रो स्वातन्त्र्य – तपस्वी !”
सहसा गाते हुए चारणी ने प्रवेश किया !
“मेवाड़ की यश-गायिका चारणी महाराणा का अभिवादन करती है।” गाना बन्द कर चारणी ने तनिक झुकते हुए महाराणा का अभिवादन किया।
“कहाँ से आना हो रहा है, चारणी ?” महाराणा ने प्रश्न किया।
“दक्षिण की यात्रा करके लौट रही हूँ, महाराणा!” चारणी ने कहा- ‘अकबर का सेनाध्यक्ष मानसिंह दक्षिण विजय के बाद अपने लाव-लश्कर के साथ इधर ही बढ़ा आ रहा है।”
“क्या ?” महाराणा का हाथ तलवार पर चला गया- “मानसिंह इधर ही बढ़ा आ रहा है ?”
“हाँ, महाराणा !” चारणी ने कहा- “शायद वह अपनी विशाल सेना और बल का प्रदर्शन करने ही आ रहा है।”
“उसका उचित सत्कार किया जायेगा!” महाराणा ने तनिक गम्भीर होते हुए कहा- “तुम विश्राम करोगी, चारणी?”
“जब महाराणा को विश्राम नहीं, तो मेवाड़ की इस साधारण गायिका को विश्राम कहाँ ! फिर चलते रहने के कारण ही तो हम चारण है, महाराणा ! देश अंगडाइयाँ ले-लेकर उठ रहा है, जाग रहा है । मुझे उन्हें जगाये रखना है।” और फिर ‘जागो हे मेवाड़ मनस्वी’ गाती हुई चारणी चली गई।
“मानसिंह के इरादों के बारे में आपके क्या विचार हैं, चन्दावत कृष्णसिंह ?” चारणी के जाते ही महाराणा ने प्रश्न किया।
“मेरे विचार में अभी उसका इरादा लड़ने का नहीं । हाँ, शक्ति-प्रदर्शन करने का इरादा अवश्य हो सकता है।” चन्दावत कृष्णसिंह ने कहा—’यह भी सम्भव है कि वह अपने पिता राजा भगवानदास द्वारा चलाई गई बात को आगे बढ़ाने के लिए ही आ रहा हो।”
“हुँ !” महाराणा ने तनिक उपेक्षा से कहा-“वह अपनी बहिन का रिश्ता कुँवर अमरसिंह के साथ करना चाहता है। यही उसके पिता ने कहा था। इस बहाने से वह हम लोगों को भी अकबर के खेमे में ला खड़ा करना चाहता है।”
“चमगादड़ और सूर्य का भला क्या मेल, महाराणा ! सामन्त भीमसिंह ने कहा-“उन्हें साफ-साफ कह दिया जाय!
“मैं तो मानसिंह जैसे खुशामदी और स्वाभिमान को बेच डालने वाले व्यक्ति का मुंह तक नहीं देखना चाहता।”
उसी समय एक अपरिचित घुड़सवार ने प्रवेश किया। वह घोड़े से उतर, लगाम को एक वृक्ष के तने में अटकाकर महाराणा की तरफ बढ़ा।
“कौन हो तुम?” राठौर तेजसिंह ने आगे बढ़ते हुए उसे ललकारा।
“मैं महाबली सम्राट अकबर के सेनाध्यक्ष महाराजा मानसिंह का सेवक हूं।” उसने कहा- “मुझे महाराणा प्रताप की सेवा में कुछ निवेदन करना है।”
“तुम्हें इधर का रास्ता किसने बता दिया ?” राठौर तेजसिंह ने फिर प्रश्न किया।
“सूर्य उगे, तब भी क्या यह पूछने की आवश्यकता रहती है, कि सूर्य इस समय किस दिशा में है ?” उस दूत ने कहा।
तेजसिंह मुस्कराया और उसे महाराणा के पास ले गया। उसने महाराणा का अभिवादन करते हुए कहा-
“हमारे महाराज आपसे मिलने का समय चाहते हैं, महाराणा !”
“आजकल वे कहाँ पर हैं ?” महाराणा ने पूछा।
“उदयपुर के समीप पहुंच चुके हैं।” दूत ने कहा-“उनका इरादा सीधे यहाँ चले आने का था। पर आप लोग कुछ आशंका न करें, इस कारण वे वहीं रुक गये हैं। अब जैसी आज्ञा हो !”
“अच्छा !” महाराणा ने अपने साथियों की तरफ देखा। कुछ क्षणों तक धीरे-धीरे उनसे कुछ सलाह की। फिर दूत से कहा- “हम उदयसागर के तट पर उनका स्वागत करेंगे। कल दोपहर का भोजन वे वहीं पर हमारे यहाँ ही करेंगे । कह दो जाकर।”
“जो आज्ञा !” दूत सिर झुकाकर चला गया।
सरदारों से सलाह-मशविरा करके कुँवर अमरसिंह को मानसिंह का स्वागत करने का कार्य सौंपा गया। महाराणा ने स्वयं भी मिलने का निश्चय किया ! फिर सभा उठ गई।