महाराणा प्रताप भाग-7
“भूल?” उस वृद्ध ने फिर कहा —” सिसोदिया वंश से अब भूल होने के सिवाय और आशा ही क्या कर सकते है?”
“क्या –आ?” प्रताप का मुंह खुला रह गया| उन्होंने बारी-बारी से मन्नाजी और शक्तिसिंह की तरफ देखा|
“स्वर्गीय राणा उदयसिंह की भूल का ही तो यह परिणाम है कि एक विलासी बाप्पा रावल के सिंहासन को चित्तौडगढ़ में अपवित्र कर रहा है, दूसरा कुम्भलगढ़ में | राणा का वंश अपने को, अपने वंश और सिंहासन को चाहे जो करे, पर हमारे जीवन और मान-सम्मान को कलंकित करने का किसी को कोई अधिकार नहीं |”
“हाँ-हाँ, हम यह प्रतिदिन का अपमान नहीं सह सकते |” भीड़ में से कई आवाजें आई |
“यदि यही दशा रही तो हमें किसी अन्य राज्य में जाकर शरण लेनी पड़ेगी |” फिर कई आवाजें सुनाई दी |
“सागरसिंह हो या यागमल, हम किसी की परवाह नहीं करेंगे | हम भूखे-प्यासे रह सकते है, पर बहु-बेटियों का अपमान सहन नहीं कर सकते, वह भी अपने रक्षक राणा-परिवार के द्वारा तो कदापि नहीं |”
दो-चार क्षणों तक सन्नाटा रहा |
“भैया !” शक्तिसिंह ने अपने में ही खो रहे प्रताप को हिलाते हुए पुकारा |
“चलो, शक्ति ! मुझसे यह सब नहीं सुना जाता — नहीं सुना जाता |” प्रताप ने जैसे बडबडाते हुए कहा –“ओह ! मै कितना लाचार हूँ… एकदम विवश हूँ ! चलो भैया शक्ति !”
“पर यह सब कब तक चलता रहेगा भैया ?” शक्तिसिंह ने प्रश्न किया |
“पर हम लोग कर ही क्या सकते हैं, शक्ति ?” प्रताप ने फिर विवशता के भाव से कहा | लगता था, जैसे उसकी आँखें भर आई थी | उसका तन आवेश में कांपने लगा था |
“आप सब कुछ कर सकते है, कुमार !” एक साथ कई आवाजें आई—“हम यागमल को नहीं चाहते | यदि आपने अभी भी कुछ नहीं किया, तो मेवाड़ का रहा-सहा मान भी मिटटी में मिल जायेगा | जो दो-चार किले रह गए है, उनको भी अकबर की रण-नीति छीन लेगी | फिर मेवाड़ का चप्पा-चप्पा आगरे का मीना बाजार (जहाँ स्त्रियाँ दुकाने लगाती थी | उसमे केवल अकबर और शहजादे ही जा सकते थे | उस बाजार के बहाने से अकबर यहाँ की स्त्रियों को अपनी वासना के जाल में फंसाया करता था) बन जायेगा…|
“ओह ! चुप रहिये आप लोग !” प्रताप ने जैसे कड़ककर कहा और अपने घोड़े को एड लगा दी |
“भैया !” शक्तिसिंह ने पुकारा |
“राजकुमार प्रतापसिंह !” मन्नाजी ने आवाज लगाईं | पर प्रताप न रुके | अंत में ये दोनों और अन्य साथी भी प्रताप के पीछे-पीछे चल दिए |
भीड़ घबराई सी सन्नाटे में रह गई |
“मात्रभूमि और उसके निवासियों का कितना दर्द है प्रताप के मन में !” एक ने कहा |
“बेचारे हमारी दुर्दशा को सुनकर सह न सके और कान बंद कर चले गए |” दूसरा बोला |
“आँखों में आंसू ढुलकना ही चाहते थे| यदि एक क्षण भी यहाँ और रुकते, तो रोये बिना ना रहते |” तीसरे ने कहा |
“पर कितने विवश है|” चौथा बोला–“जब उनके हाथ में कुछ अधिकार ही नहीं है, तो हमारे लिए कर भी क्या सकते है ?”
“हमें इन दोनों नाममात्र के राणाओं–सागरसिंह और यागमल — के विरुद्ध विद्रोह कर देना चाहिए |” पहले वाले वृद्ध सज्जन ने कहा |
अभी उनकी बात समाप्त भी न हो पाई थी कि चार-पांच घुड़सवार भीड़ की दांई ओर से चुपचाप निकलकर सामने आ खड़े हुए | क्योंकि वे घुड़सवार गाँव की आड़ी-तिरछी गलियों से निकलकर अचानक आ गए थे, उन्हें आते हुए कोई देख न सका था, अत: सभी लोग स्तब्ध से रह गए |
“किसके विरुद्ध विद्रोह करने की योजना बना रहे है आप लोग ?” एक प्रोढ़ से दिखने वाले घुड़सवार ने पूछा|उसकी वेश-भूषा राज-कर्मचारियों के उच्च अधिकारी जैसी थी |
किसी ने कोई उत्तर न दिया |
चारों-पांचों घुड़सवार उनकी तरफ उत्सेकता के बाव से देखते रहे |प्रश्न करने वाला व्यक्ति था मेवाड़ का महामंत्री | उसके साथ दूसरा प्रमुख व्यक्ति था सलुम्बरा के राजा ओर मेवाड़ के प्रमुख सामंत चंदावत कृष्ण सिंह | तीसरा व्यक्ति था सामंत भीमसिंह | चौथा था प्रमुख सरदार झालौर राव | दो-एक अन्य सरदार थे | ये सभी सलुम्बरा की तरफ से आकर कुम्भलगढ़ की ओर जा रहे थे|
“विद्रोह ! किसके विरुद्ध विद्रोह ? बताया नहीं आप लोगों ने ?” मेवाड़ के महामंत्री के महामंत्री ने फिर कहा |
“आप…आप सब लोगों के विरुद्ध विद्रोह, जो राजपूती पगड़ी पहनकर, कमर में तलवार खोंसकर भी हम लोगों की मिटटी ख़राब कर रहे है |” पहले वाले वृद्ध ने कडकती आवाज में कहा–“उस भटियानी रानी के विलासी बेटे यागमल के विरुद्ध विद्रोह, जो मेवाड़ के राणाओं की पवित्र पगड़ी पहनकर विलासिता ओर शराब की प्यालियों में देश की रही सही आन को भी डुबो देना चाहता है |”