महाराणा प्रताप भाग-8
चारों-पाँचों व्यक्तियों ने एक-दुसरे की तरफ देखा|
” आप सालुम्बरा के चंदावत सरदार है ना ?” वृद्ध ने कृष्ण सिंह की तरफ इशारा करते हुए फिर कहा–“और आप मेवाड़ के वृद्ध महामंत्री —क्यों ?” मै और आप मेवाड़ की तीसरी पीडी को देख रहे है, मंत्री जी–है ना ? क्या हम लोग इसीलिए जीवित है कि अपनी आँखों से घर में आग लगती देखे ? क्या यही हमारी राजपूती आन है ? रक्षकों और उनके विदेशी समर्थकों द्वारा अपनी बहु-बेटियों की आन को लुटते हुए देखें, वह आन जो चिता में अब भी ठंडी नहीं हुई ? बोलिए महामंत्री ! कहिये चंदावत सरदार ! क्या यही आपके पूर्वजों की आन का प्रतिक मेवाड़ है — आप की पगड़ियों के ये तुर्रे कब तक यों हवा में लहराते रह सकते है, सोचा है आप लोगों ने कभी ? बोलो, मेरे देश के रक्षकों ! ये तुर्रे जल्दी ही कटकर गिर जायेंगे… फिर करने पर भी कुछ न हो सकेगा—हाँ !”
“आप कह क्या रहे है, महाशय ?” चंदावत कृष्ण सिंह ने आश्चर्य और दुःख से पूछा |
“अभी भी आप पूछ रहे है की हम चाहते क्या है ? आश्चर्य !” वृद्ध ने कहा—“विलासी सागरसिंह के सामान जिस दिन यागमल भी अकबर की गोद में जा बैठेगा, उस दिन आकर पूछियेगा, कि हम क्या चाहते है !” वृद्ध ने तनिक जोश में आकर मुट्ठियाँ बांधते हुए फिर कहा—“हम चाहते है, वह राजपूत-रक्त, जो शराब के प्यालों में नहीं, युद्ध के मैदान में बह सके । जो राजपूतों की रही-सही आन कि रक्षा कर सके। हम सागरसिंह और यागमल को नहीं, प्रताप को चाहते है— प्रताप को।”
“हाँ-हाँ, हम प्रताप को चाहते है ।”
“हम प्रताप को चाहते है।”
कई क्षणों तक ये शब्द गूंजते रहे ।
चंदावत कृष्ण सिंह ने बारी-बारी से महामंत्री, झालौर राव, भीमसिंह की तरफ देखा, फिर कहा—
“हम लोग आपकी भावनाओं का सम्मान करते है।”
“भावनाओं का सम्मान ! वह क्या होता है, चंदावत सरदार ?” वृद्ध ने आगे बढ़ते हुए कहा–“जब इस विलासी भटियानी-कुमार यागमल को राणा घोषित किया जा रहा था, तब भावना का सम्मान कहाँ सोया हुआ था–बोलो ?”
चंदावत सरदार चुप रहे ।
“यदि हमारा कहा न माना गया, तो हम लोग अपनी पित्रभूमि मेवाड़ को हमेशा की लिए छोड़ जायेंगे।”
“प्रजा ही राज्य की नींव है। पर नींव का पत्थर होते हुए भी वह जड़ बनकर अपमान नहीं सह सकती।”
लोग और भी पता नहीं क्या-क्या कहते रहे।
महामंत्री, चंदावत कृष्ण सिंह, झालौर राव और भीमसिंह वहां से थोडा हटकर एक तरफ जा खड़े हुए ।
“मै तो पहले ही कहता था कि प्रताप का अधिकार छीन स्वर्गीय राणा उदयसिंह ने अच्छा नहीं किया ।” झालौर राव ने कहा।
“मैंने तो इस बात का विरोध भी किया था।” चंदावत कृष्ण सिंह बोले।
“सागरसिंह और यागमल राणा उदयसिंह की विलासी भावना के जीते-जागते रूप है। मैंने तो इन दोनों को कभी भी पसंद नहीं किया।” भीमसिंह ने अपना मत प्रगट किया।
“दोष मेरा ही है।” महामंत्री बोले—“मैंने ही उत्तराधिकारी की घोषणा के समय कहा था कि हमें राणा कि इच्छा का सम्मान करना चाहिए।” कुछ क्षण रूककर महामंत्री फिर बोले— “वह मेरी गलती थी। आज हमने काफी प्रदेश में घूम-घूमकर मात्रभूमि की दुर्गति के चित्र देखे है । देश अकबर की युद्ध नीति से प्रतिदिन छीजता जा रहा है –छीनता जा रहा है। अब तो कुछ करना ही होगा, कृष्ण सिंह जी !”
“जिसने बोया, वाही काटे भी।” कृष्ण सिंह ने उत्तर दिया।
“कुंवर प्रताप सिंह की इच्छा जानना भी तो आवश्यक है। उस जैसा आदर्शवादी क्या पिता की इच्छा के विरुद्ध राणा बनना स्वीकार करेगा ?” सामंत भीमसिंह ने कहा |
“कुंवर प्रताप को मनाना ही होगा, भीमसिंह जी !”
झालौर राव ने कहा—” यह कार्य चंदावत कृष्ण सिंह ही ठीक प्रकार से कर सकते है। मै भी उनके साथ रहूँगा।”
“तो ठीक है !” महामंत्री ने कुछ सोचते हुए फिर कहा—“चंदावत कृष्ण सिंह ही प्रजा के इस विद्रोह का नेतृत्व करेंगे। हम सब लोग समर्थन के लिए इनके साथ रहेंगे| क्यों चंदावत सरदार ?”
“देश हित के लिए मुझे स्वीकार है।” चंदावत कृष्ण सिंह ने कहा।
उसके बाद वे लोग ग्रामीणों की भीड़ के समीप आ गए। महामंत्री ने भीड़ को संबोधित करते हुए कहा—
“आप लोगों की इच्छा दो-चार दिन में ही पूरी हो जाएगी, भाइयों।”
“राजकुमार प्रताप—” कोई चिल्लाया ।
“अमर रहे।” सभी ने पुकारकर कहा।
“मेवाड़—”
“अमर रहे।”
और भीड़ बिखर गई।
वे चारों-पाँचों घुड़सवार कुम्भलगढ़ की तरफ बढ़ गए।
One Response
It’s imtpareive that more people make this exact point.