महाराणा प्रताप भाग-11
“अकबर अब इस पवित्र भूमि पर कभी कदम नहीं रख सकेगा…धिक्कार है तुम्हे !” महामंत्री ने कहा और फिर उन विदेशियों की तरफ देखकर अपने सैनिकों को इशारा करते हुए कहा—“गिरफ्तार कर लो इन्हें !”
दो सैनिकों ने आगे बढ़कर विदेशियों, अकबर के उन दूतों को बंदी बना लिया।
“डूब मरने की बात है !” महामंत्री ने नशे में मस्त दर-बारियों की तरफ देखते हुए कहा—“देश की सीमाएं किसी भी क्षण सुलग सकती है। विदेशी शक्तियां थोडा-थोडा करके देश की सीमाओं को चूहों की तरह कुरेदते हुए हडपति जा रही है और आप लोग — जिनके कन्धों पर मात्रभूमि की सुरक्षा का भार है—शराब और नृत्य में डूबे जा रहे है ! भगवान ही मालिक है ऐसे लोगों और ऐसे देश का !”
कुछ क्षणों तक सन्नाटा रहा। फिर चंदावत कृष्ण सिंह आगे बढे और बोले—
“हम सबने बाप्पा रावल का यह पवित्र सिंहासन वीर कुंवर प्रताप सिंह को सौंपने का निश्चय किया है, क्योंकि सारे देश की यह मांग है। प्रतिक्रियावादी और विलासियों के लिए आज से मेवाड़ में कोई स्थान नहीं। आप सब लोग इसी क्षण यहाँ से मेवाड़ भूमि से सदा के लिए जा सकते है।”
कोई भी नहीं हिला। सन्नाटा छाया रहा।
“कुंवर यागमल यही चाहें तो उन्हें अकबर के पास भिजवाने की व्यवस्था इसी क्षण की जा सकती है।” झालौर राव ने कहा —“क्यों कुंवर यागमल ?”
“हाँ-हाँ !” चंदावत कृष्ण सिंह तथा सामंत भीमसिंह ने भी कहा।
अब तक यागमल पूर्णतया होश में आ चूका था। भय और आश्चर्य के भाव से वह सबकी तरफ देख रहा था। उसने होठों ही होठों में बडबडाते हुए धीरे से कहा—-
“क्या मुझे क्षमा नहीं किया जा सकता ?”
“क्या देश-सेवा की गंगा में डुबकियाँ लगाकर अपने पापों को धो सकोगे, कुंवर ?” चंदवर कृष्ण सिंह बोले–“क्या प्रायश्चित की अग्नि में तपकर अपने मन की विलासिता को जला सकोगे ?”
“माँ भवानी की कसम, चंदावत सरदार !” कुंवर यागमल ने जैसे बिलखते हुए कहा—“आपको और मात्रभूमि को भविष्य में किसी भी प्रकार की शिकायत का मौका न मिलेग।”
तभी शक्ति सिंह तथा दो-तीन अन्य सरदारों के साथ प्रताप ने प्रवेश किया। झाला वीर मन्ना जी भी उनके साथ थे। आते ही प्रताप ने सभी की तरफ आश्चर्य से देखते हुए कहा—
“मेरे आदरणीय आप लोगों ने मुझे किसलिए याद किया है, महामंत्री ?”
“आओ कुंवर !” चंदावत कृष्ण सिंह ने आगे बढ़कर प्रताप का हाथ थामते हुए कहा— “बाप्पा रावल का यह पवित्र सिंहासन अपने योग्य पुत्र की कब से प्रतीक्षा कर रहा है !”
“क्या कहा रहे है आप लोग !” प्रताप ने और भी आश्चर्य से कहा—“स्वर्गीय पिताश्री की आज्ञा से भाई यागमल…..!”
“मुझे क्षमा कर दो, प्रताप भैया !” सहसा यागमल ने आगे बढ़कर प्रताप के चरणों में गिरते हुए कहा—“मै वास्तव में इस पवित्र सिंहासन के योग्य और इसका अधिकारी नहीं हू। पिताश्री ने मेरी माँ के बहकावे आकर वास्तव में गलती की थी। देखो-देखो, प्रताप भैया, आज क्या अनर्थ होने जा रहा था ! इस विलासिता के मद में अँधा होकर मै बाप्पा रावल, हम्मीर, महारानी पद्मिनी और महाराणा सांगा जैसे महान पूर्वजों के रक्त से सींचे इस पवित्र सिंहासन को हमारी मात्रभूमि की स्वतंत्रता के शत्रुओं के हाथों सौंपने जा रहा था !” महामंत्री के हाथों से संधि-पत्र छिनकर यागमल ने प्रताप के सामने करते हुए कहा।
प्रताप दो-चार क्षणों तक स्तब्ध भाव से उस संधि-पत्र की ओर देखते रहे। फिर गंभीर भाव से बोले—
“जो हो चूका, उसे भूल जाओ, यागमल भैया ! पिताश्री की इच्छा के अनुसार मेवाड़ का महाराणा तुम्हे ही बने रहना होगा। हम सब भाई मिलकर देश के उद्धार का व्रत लेंगे। क्यों, शक्ति, ठीक है न ?” एक क्षण रुक ओर शक्तिसिंह की तरफ देखते हुए प्रताप ने फिर कहा–” जब यागमल भैया ने अपनी गलती को स्वीकार कर लिया है, तो अब उन्ही को राणा रहना चाहिए।”
“पर मेवाड़ की प्रजा ओर सामंत-सरदार इस बात को कभी स्वीकार न करेंगे, कुंवर प्रतापसिंह !” महामंत्री ने कहा—“हम लोग गाँव-गाँव में घूम-घूमकर प्रजा ओर विश्वासी सरदारों की इच्छा जान चुके है। सारा मेवाड़ अपने राणा के रूप में केवल प्रताप को ही देखने के इच्छुक है।”
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