महाराणा प्रताप भाग-24
कमलमीर की पर्वतमाला।
एक काफी बड़ी साफ़-सुथरी झोंपड़ी नजर आ रही थी। उस झोंपड़ी पर सूर्य के चिन्ह से अंकित लाल झण्डा लहरा रहा था। सामने एक बहुत बड़ा चौड़ा-चपटा पत्थर का टुकड़ा पड़ा था। उस पर कुशाओं (घास) का एक आसान आसन बिछा था। दो बच्चे उसके आसपास खेल रहे थे।
उस झोंपड़ी से कुछ हटकर दो-तीन अन्य झोंपडियाँ भी दिखाई दे रही थी। उनके आसपास कुछ राजपूत और भील योद्धा तलवार चलाने और युद्ध लड़ने का अभ्यास कर रहे थे। एक झोंपड़ी के बाहर साफ़-सुथरा चूल्हा-चौका सुलग रहा था। राणा प्रताप की रानी सुलक्ष्मीबाई वहाँ भोजन की व्यवस्था में मग्न थी। खेलते हुए बच्चे कभी-कभी ‘माँ-माँ’ कहते हुए भाग कर आते और रानी से चिपक जाते।
“वह महाराणा आ गए!”
तलवार चलाने वालों में से किसी ने कहा। उनमें से एक ने भागकर महाराणा के घोड़े की बाग थाम ली। महाराणा उछल कर घोड़े से उतर आये। उनके साथ वाले सैनिक भी नीचे उतर आये। उनकी तरफ देखते हुए महाराणा ने कहा —
“आप लोग जाकर आराम करिये। परसों फिर हम लोग दूसरे इलाके में चलेंगे।”
“जो आज्ञा !” कहकर वे साथी सैनिक चले गये।
आजकल महाराणा कुछ सैनिकों को साथ लेकर अक्सर आसपास के इलाकों में निकल जाया करते। वे मेवाड़ के गाँव-गाँव में जाकर वहाँ लोगों को स्वतंत्रता-संग्राम में भाग लेने के लिए समझाते। इस कारण उनके सैनिकों की संख्या और शक्ति प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। इन यात्राओं के बीच कई बार उनकी मुठभेड़ मुग़ल सैनिकों से भी हो जाया करती, जिन्हें ये लोग या तो मार डालते या फिर उन्हें भाग जाने के लिए विवश कर देते।
महाराणा वहाँ सीधे अपनी झोंपड़ी में गये। दो-चार क्षण सुस्ता लेने के बाद उन्होंने हाथ-मुँह धोया। इतने में रानी सुलक्ष्मीबाई वहाँ आ पहुँची। उन्होंने शिकायत-भरे स्वर में कहा —
“आजकल तो कई-कई दिनों तक आपके दर्शन तक भी नहीं हो पाते। बच्चे तो पिताजी-पिताजी कहते हुए आपको देखने तक के लिए तरस जाया करते हैं।”
“आजकल विश्राम कहाँ, महारानी ! प्रताप को भगवान ने विश्राम के लिए जन्म नहीं दिया। फिर विश्राम तो आदमी को कायर और आलसी बना देता है।” एक क्षण रूककर उन्होंने फिर कहा – “रही बच्चों की बात ! सो उन फूलों को काँटों में खिलने दो। जो फूल जितने अधिक काँटों में खिलता है, वह उतना ही अधिक सुगन्धित, सुन्दर तथा स्वस्थ होता है।”
इतने में ‘पिताजी-पिताजी’ कहते हुए दोनों नन्हे बच्चे भी आ गए। राणा ने दोनों को गोद में लेकर प्यार किया।
“आप रोज़ -रोज़ कहाँ चले जाते हैं, पिताश्री ?” नन्ही बच्ची ने तोतली बोली में पूछा।
“हमें भी साथ ले जाया कीजिये !” नन्हे लड़के ने भी उसी प्रकार उनसे लिपटते हुए कहा।
“तुम लोग भी जल्दी-जल्दी बड़े हो जाओ,बेटों !” राणा प्रताप ने स्नेह से कहा — “फिर तुम लोगों को भी साथ ले जाया करेंगे — हाँ !”
दोनों बच्चे खुश हो गये। सहसा नन्ही लड़की कह उठी — “हम अपने घर कब जायेंगे, पिताश्री ?”
“घर !” प्रताप ने करुणाभरी दृष्टि से बच्ची की तरफ देखा। फिर कहा — “यही तो है अपना घर, बेटे !”
“यह कैसे घर है,पिताश्री ! यह तो झोंपड़ी है। चारों तरफ जंगल हैं। यहाँ माँ के सिवाय हमें देखने वाला कोई नहीं। वह जो हमारा पहले वाला घर था,वह क्या हुआ ?” लड़की ने फिर मचलते हुए कहा।
प्रताप और रानी ने एक-दूसरे की तरफ देखा। दोनों के नयन अनजाने ही भर आये। प्रताप ने धीरे से कहा —
“तुम लोगों ने खाना खा लिया क्या ?”
“हम तो आपके साथ ही खाएंगे,पिताश्री !” नन्हे लड़के ने कहा –“पर हमें पत्तलों में खाना क्यों दिया जाता है, पिताश्री ? वह सुन्दर सुन्दर थालियाँ क्या हुई ?”
“बेटे !” प्रताप का स्वर करुणा से खिंच गया। बोले — “तुम्हारा घर, तुम्हारी सुन्दर-सुन्दर थालियाँ सभी पर इन विदेशी शत्रुओं ने अपना अधिकार कर लिया है। हम जल्दी ही उनसे सब छीनकर तुम्हें ला देंगे, बेटे !”
बात को टालने के विचार से महारानी ने कहा —
“चलो, बच्चों ! अब खाना खायेंगे।” फिर वे प्रताप से बोली — “आप भी वहीँ रसोई में आ जाइये !”
बच्चों को लेकर रानी चली गई। राणा भी उठकर चले गये।