महाराणा प्रताप भाग-3
“प्रताप !”
“अं-हाँ !” प्रताप ने चौंककर देखा |
“तुम अकेले यहाँ खड़े होकर क्या कर रहे हो, प्रताप ?” कहने वाले थे राजगुरु | वे बोले –“हम सब तुम्हें उधर खोजते रहे | तलवार चलने का अभ्यास करके तुम चुपके के खिसक आये, यह तुम्हे क्या होता जा रहा है, कुंवर ?”
“गुरुदेव !” प्रताप ने गंभीरता के कहा–“आपने उस दिन बताया था न कि कभी यह आसपास का सारा प्रदेश स्वाधीन था | हमारे पूर्वजों कि किलकारियां यहाँ के चप्पे चप्पे पर गूंजा करती थी…” अचानक कुछ जोश में आते हुए प्रताप ने फिर कहा — “पर अब वे कहाँ चली गई है, गुरुदेव ? मुझे तो वे कहीं सुने नहीं पड़ती ? यह भी क्या जीवन है हमारा !”
“सब समय कि बात है, प्रताप !” राजगुरु कहने लगे—“समय ने वह सब हमसे छीन लिया है | आज यहाँ हमारा अपना कहने को कुछ भी नहीं रह गया | मुगलों कि साम्राज्य वादी भावना ने सब कुछ हडप लिया है | जब के दिल्ली के सिंहासन पर अकबर बैठ है, तब से तो मेवाड़ के सब प्रदेश एक-एक करके हाथ से निकलते जा रहे है |”
“तो क्या हम लोग कायर हो गए है, गुरुदेव ?” प्रताप ने कमर में लटक रही तलवार पर हाथ रखते हुए कहा|
“कायर नहीं, विलासी कहो, कुंवर ! विलास की भावना ने आज राजपूतों के पास मान-सम्मान कुछ भी नहीं रहने दिया | वे आराम का जीवन व्यतीत करना चाहते है, इसी कारण उनकी तेजस्वी तलवारें भी मखमली म्यानों में पड़ी ऊँघ रही है |”
“गुरुदेव !” प्रताप ने व्याकुलता से कहा |
“मुझे कह लेने दो, प्रताप !” गुरुदेव फिर बोले—“तुम अपने घर में ही देख लो | इतनी छोटी आयु में ही तुम्हारे दो भाई कुंवर सागरसिंह और यागमल राग रंग में खोये रहते है | शराब और नर्तकियां— इन्हीं दोनों में सिमटकर उनका जीवन रह गया है | राणा उदयसिंह को इस बात की चिंता नहीं की देश में क्या हो रहा है | देश के कितने भाग विदेशियों के हाथों पराधीन बनाये जा चुके है | छोटी भटियानी रानी है और वे —बस ! देश का क्या होगा, प्रताप ?”
“मै….मै क्या कर सकता हूँ, गुरुदेव ?” प्रताप ने विवशता के भाव से कहा—“मै अपने परिवार में बड़ा हूँ, पर कुछ भी नहीं कर सकता | पिताश्री राणा उदयसिंह जाने क्यूँ मुझसे रूठे-रूठे से रहते है ! ये भाई लोग भी मुझी अपना भाई नहीं समझते ! जाने मात्रभूमि का क्या होगा | काश ! मै कुछ कर पता !”
कहते-कहते प्रताप दूर के नजर आ रहे एक स्तम्भ की और देखने लगा |
ये दोनों व्यक्ति जहाँ खड़े थे, वह एक सघन वन था | वहां से चित्तोडगढ का किला स्पस्ट देखा जा सकता था | उसी गढ़ के भीतर बना था — वह स्तम्भ, जिस पर प्रताप की आँखें गडी थी | प्रताप को इस प्रकार चुप देखकर राजगुरु ने फिर कहा —
“वह स्तम्भ देख रहे हो, कुंवर ? उसका नाम है ‘विजय स्तम्भ’ | उसे तुम्हारे वीर पूर्वज राणा कुम्भा ने चित्तोर्गढ़ की विजय की ख़ुशी में बनवाया था | पर आज फिर चित्तोर्गढ़ पराधीन हो गया है | तुम्हारे पूर्वज बाप्पा रावल ने जिस महान दुर्ग का निर्माण किया था, आज उस दुर्ग में उनके वंशज नहीं, विदेशी दनदना रहे है | राणा कुम्भा ने विजय की ख़ुशी में जिस उन्नत सतम्भ (मीनार) का निर्माण कराया था, उस पर पुरे राजस्थान की पराधीनता का प्रतीक बनकर विनेशियों का झंडा लहरा रहा है | वाह रे मेरे अभागे देश !”
राजगुरु के मुख के एक आह निकल गई |
“ओह ! गुरुदेव !” प्रताप का माथा जैसे भन्ना रहा था | उसने कहा– “इस धरती का कण-कण मुहे प्यारा है| यहाँ के पत्ते-पत्ते को मै स्वतन्त्र देखना चाहता हूँ | पर…पर क्या कर सकता हूँ मै ? अपने ही घर में मेरे हाथ जैसे कटे हुए है… मै… मै कितना विवश होकर रह गया हूँ, गुरुदेव !”
“विवश और प्रताप ! नहीं-नहीं, प्रताप तुम्हे ऐसे शब्द नहीं कहने चाहिए | अपने में सकती पैसा करो | अपने पांवों पर तुम्हे अकेले ही खड़े होना है, प्रताप ! सारा राजस्थान धीरे-धीरे अकबर की राजनीति का शिकार होता जा रहा है” कहते-कहते राजगुरु जैसे कहीं दूर खो गए | कुछ क्षण मौन रहे और फिर एकाएक जैसे चौंकते हुए बोले– ” मै तुम्हारा गुरु हूँ ना, प्रताप ! मैंने तुम्हे शास्त्र और शस्त्र का ज्ञान दिया है| मेरा तुम पर ऋण है | बोलो, चूका सकोगे मेरे ऋण को ?”
“आज्ञा, गुरुदेव ?” प्रताप ने मस्तक झुकाते हुए कहा |
” तो प्रतिज्ञा करो कि तुम कभी अपने भाइयों के सामान विलासिता को पास नहीं फटकने दोगे | कभी किसी की भी पराधीनता स्वीकार नहीं करोगे…. बोलो प्रताप, चूका सकते हो यह गुरु-दक्षिणा ?”
“अबश्य गुरुदेव, अवश्य !”
और प्रताप उनके सामने झुक गए |
3 Responses
Bahot acchi Inf….hai…Jai Rana …Jai Mevar…Jai Mata di
Thanks for strtniag the ball rolling with this insight.
I’m out of league here. Too much brain power on dipysal!