महाराणा प्रताप भाग-17
“हाँ ! तलवार से !” शक्तिसिंह ने गंभीर बनते हुए कहा –“आपको अपनी शक्ति पर शायद अधिक गर्व हो गया है । आप समझते हैं कि बाप्पा रावल का तेजस्वी खून केवल आपकी रगों में ही है । उठाइए तलवार !””शक्ति भैया !” प्रताप ने आश्चर्यचकित होते हुए कहा —“बाप्पा रावल के तेजस्वी खून का तेज देखने के अनेक अवसर जल्दी ही आने वाले है । तुम मेरे ही भाई हो । भला मैं अपने भैया को अपने से कम कैसे समझ सकता हूँ ?””इसका निर्णय केवल तलवार से ही अब हो सकता है !” शक्तिसिंह ने लापरवाही और उपेक्षा से कहा —“साहस है, तो निकालो तलवार ! नहीं तो मेरी बात आन लो कि सूअर पर पहला वार मेरा हुआ ।”
“मेरे लिए तुम्हारी दोनों बातें मानना कठिन है, शक्ति !” प्रताप के रुख में कुछ कड़ाई आने लगी थी ।
“नहीं, क्यों नहीं ?” शक्तिसिंह गरज उठा । उसकी आवाज सुने जंगल में दुर-दूर तक गूंजती रही –“दो में से एक बात तो माननी ही होगी ।”
“यदि न मानूं तो ?”
“तो भी मनवा लूँगा ।”
“हठ न करो, शक्ति !”
“तलवार उठाओ, प्रताप !”
“प्रताप !” प्रताप को भी क्रोध आ गया —“इतना दंभ ! मैंने तुम्हें भाई नहीं, बेटे की तरह समझा है, शक्ति ! सत्य और न्याय की रक्षा के लिए तुमने मुझे अपने ही दांये हाथ के विरूद्ध तलवार उठाने के लिए बाधित कर दिया है !” एक क्षण प्रताप गंभीरता से कुछ सोचते रहे । एकाएक तलवार खेचते हुए जैसे ललकार उठे — सावधान, शक्ति ! तुम्हारे अविवेक और अन्यायपूर्ण विचार का दण्ड देने के लिए मैं बाधित हूँ !”
और दोनों भाइयों की तलवारें टकराने लगी !
“ठहरो !” सहसा सुनाई दिया ।
सहसा अपने घोड़े से उतर, उनके समीप आते हुए राजगुरु ने कहा — “यह क्या पागलपन है ! भाई – भाई में युद्ध ! ओह ! मेरी आँखें आज क्या देख रही है !”
“आप परे हट जाइये, राजगुरु !” शक्तिसिंह ने एक हाथ से तलवार चलाते हुए, तथा दुसरे से राजगुरु को रोकने का प्रयत्न करते हुए कहा ।
“इसके झूठ और घमण्ड का दण्ड मुझे दे लेने दीजिये, गुरुदेव !” प्रताप ने भी वैसी ही स्थिति में कहा ।
“नहीं ! नहीं ! यह नहीं हो सकता !” गुरुदेव ने बीच में पड़ने की चेष्ठा करते हुए गम्भीर स्वर में कहा — “तुम दोनों तो मेवाड़ की दो भुजाएं हो ! तुम दोनों तो मेवाड़ के भविष्य की दो आँखें हो ””’ रुको ! मुर्खता न करो, राजपूतो ! संकट-काल में यह आपसी विरोध””नहीं-नहीं, यह पागलपन है””’! और वे बीच-बचाव करने की चेष्टा करने लगे ।
“आज एक बाँह कटकर ही रहेगी, गुरुदेव“` ” शक्तिसिंह ने कहा — “आज एक आँख “` ओह !”
सहसा शक्तिसिंह रुक गया । प्रताप झुक गया, क्योंकि राजगुरु शक्तिसिंह की तलवार लग जाने से सख्त घायल होकर नीचे गिर पड़े थे ।
“गुरुदेव !”प्रताप ने बिलखते हुए कहा और उनका सिर उठाकर अपनी जांघ पर रख लिया ।
“राजगुरु !” शक्तिसिंह के चेहरे पर भी पश्चाताप का भाव भर उठा था ।
“ओह ! अँधेरा ! “` राजपूतों““ न-न, यह पागलपन है“` इसका दुष्परिणाम “`दुष्परिणाम “`!” कहते-कहते राजगुरु का सिर प्रताप की गोदी में लुडक गया ।
“ओह ! गुरु के हत्यारे शक्तिसिंह !” प्रताप ने चीखकर कहा और बच्चों की तरह फूट -फूटकर रोने लगे ।
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