महाराणा प्रताप भाग-18

महाराणा प्रताप भाग-18

“मै –मैं शर्मिन्दा  हूँ, प्रताप ! मैं यह बिलकुल नहीं चाहता था …!” शक्तिसिंह ने गिडगिडाते  हुए कहा — “मैं तो तुम्हारा घमंड तोडना चाहता था, पर….पर हमें स्वाभिमान का पाठ पढ़ाने  वाला मेरे हांथों से टूट गया– ओह !” शक्तिसिंह की आँखों में भी आंसू भर आये ।

कुछ क्षण उदासी में सरक गए ।

“शक्तिसिंह !” धीर-गंभीर स्वर में प्रताप ने सर उठाकर कहा —“मैं अपना अपमान सह सकता था । अपने अपमान के बदले में तुम्हे सौ बार क्षमा कर सकता था, पर तुम्हारा यह घोर अपराध ? — नहीं, तुम्हारा यह अपराध क्षमा  नहीं किया जा सकता ! घमंडी और वाचाल  (बकवादी) शक्तिसिंह ! तुम्हारे लिए अब इस मेवाड़  की पवित्र भूमि पर जगह नहीं । इसी क्षण इसी दशा में तुम मेवाड़  राज्य की सीमा से सदा के लिए निकल जाओ ! जाइये ! मेरा मुँह  क्या देख रहे हो ? इसी क्षण मेरी आँखों से दूर हो जाओ !”

“तुम मेरा फिर अपमान कर रहे हो, प्रताप !” शक्तिसिंह ने दुष्टता से कहा — “तुमने मेरे से कुछ दिन पहले जन्म लिया, इसलिए तुम बड़े हो ! तुम्हे सामंतों और सरदारों ने राणा  बना दिया है, इसलिए तुम्हे अभिमान हो गया है; तुम सचमुच अपने आपको बड़ा बहादुर मानने लगे हो ! पर तुम्हे मेरा इस प्रकार अपमान करने का कोई अधिकार नहीं है !”



“जाओ-ओ !” प्रताप ने गरजकर क्रोध में कहा । उसकी आवाज काफ़ी  खिंच गई । उसकी गूंज काफ़ी  देर तक बनी रही ।

“तुम मुझे भटकने की रहा पर डाल  रहे हो, प्रताप !”

“जाओ ! निकल जाओ !”

“अच्छा  !” शक्तिसिंह ने कुछ सोचते हुए कहा –“बदला ! मैं इस अपमान का बदला लूँगा ! तुम्हारे अभिमान को मिट्टी  में न मिलाकर रख दिया, तो मेरा नाम भी शक्तिसिंह नहीं ! बदला ! बदला ! अपमान का बदला —आ !”

और पैर पटकता हुआ चल दिया । उसका ‘बदला’ शब्द जैसे हवा के परों पर तैरता हुआ काफी देर तक गूंजता रहा ।

“बदला !” प्रताप होठों में ही बुदबुदाया ! फिर उसने अपना मस्तक राजगुरु की ओर  झुका दिया ।

राठौर तेजसिंह आगे बढ़कर राजगुरु के शव और महाराणा को सँभालने की चेष्ठा करने लगा ।

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“और उसके बाद ?”

अकबर ने पुछा ।

अकबर अपने विशेष मन्त्रणागार (सलाह-मशवरा करने का स्थान) में बैठा था । उसके पास ही मारवाड़, आमेर, बीकानेर और बूंदी आदि राज्यों के राज़ा  भी बैठे थे । इन सभी ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी । अकबर के सामने मेवाड़ से आये दो विशेष दूत भी खड़े थे । ये दोनों दूत वाही व्यक्ति थे, जिन्होंने कुँवर यागमल  को सन्धि  के बहाने अधीन बनाने का प्रयत्न किया था । बाद में बंदी बना लिए गए थे, पर प्रताप ने राणा  बनते ही उन्हें छोड़ दिया था ।

“उसके बाद यागमल  को गददी से उतार दिया गया । प्रताप का राजतिलक बड़ी सादगी के साथ उसी समय किया गया । प्रताप ने मेवाड़  को स्वतंत्र कराने की शपथ ली । मेवाड़  के उद्धार किये बिना राजमहलों में राजसी ठाठ-बाट से नहीं रहूँगा, यह प्रतिज्ञा की । सभी उपस्थित सरदारों ने भी उसका साथ देने का प्रण  किया ।” पहले दूत ने ब्योरा देते हुए कहा ।

“अच्छा  !” अकबर कुछ गम्भीर  हो गया ।

“हम लोगों को रिहा करने की आज्ञा देते हुए प्रताप ने फिर कहा –” दूसरा दूत बोला –“जाकर अपने आका अकबर से कह दो कि  वह मेवाड़  के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप करना बंद कर दे और अपनी सीमाओं में रहे ।”

“यह बात है !” अकबर ने अपने आसपास बैठे राजपूत राजाओं की तरफ देखते हुए कहा —“सुना करते थे, कि  मेवाड़  का यह राजकुमार बड़ा वीर और स्वाभिमानी है । अब तो वह हमें चुनौती भी देने लगा है ! देखा आप लोगो ने ?”

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