महाराणा प्रताप भाग-14
कुम्भलगढ़ के पास का एक भयानक जंगल ।
“हम राजधानी से काफी दूर निकल आये हैं, महाराणा !” जंगल में एक स्थान पर रुकते हुए झाला सरदार मन्ना जी ने कहा ।
“राजधानी !” प्रताप ने आश्चर्य से कहा – “हमारी राजधानी कैसी, भाई ! मेवाड़ की परम्परागत राजधानी तो चित्तौडगढ़ में थी । उस पर एक के बाद के – तीन भयानक आक्रमण हुए, जिससे वह महान दुर्ग खंडहर जैसा बन गया । उसके रहे-सहे सम्मान और सौन्दर्य को हमारे ही भाई सागर सिंह ने मिट्टी में मिला दिया । अकबर के साथ मिलकर उसने वंश की आन और देश के सम्मान की धज्जियाँ उड़ा दी ।”
एक ठंडी आह भरते हुए प्रताप ने फिर कहा – “अब तो चारों तरफ सूना ही सूना है, मन्ना भाई ! अभी इस हरी-भरी भूमि को और सुनसान होना है । बिलकुल वीरान, तबाह और बर्बाद होना है । नहीं, इसका और कोई भी उपाय नहीं ।
“आप कहना क्या चाहते हैं, महाराणा ?” मन्ना जी ने आश्चर्य से प्रताप की तरफ देखा ।
“हमारे पास शास्त्र नहीं, धन नहीं, जन-बल भी कोई विशेष नहीं है । हमारे पास जो है, उसे भी छोड़-छाड़कर इन्हीं जंगलों में आ बसना होगा ।” भावना में बहते हुए प्रताप कहते गए —
“अपने ही हांथों से अपनी मात्रभूमि के हरियाली के सुहाग को उजाड़ना होगा … एक बार ऐसा करना ही होगा, मन्ना भाई । इसी प्रकार हम शत्रुओं की शक्ति को क्षीण करने में समर्थ हो सकेंगे ।”
“कैसे ?” मन्ना जी ने फिर प्रश्न किया ।
“आज के इस ‘अहेरिया’ उत्सव के बाद कल ही मैं इस कुम्भलगढ़ की राजधानी को भी छोड़ दूँगा । सरे मेवाड़ में यह घोषणा की जाएगी कि जिसके मन में मात्रभूमि को स्वतंत्र कराने की आग है, वह कमलमीर और अरावली की पहाड़ियों में आ बसे । देश में कहीं खेती-बाड़ी न की जाय, जब तक यहाँ से शत्रुओं को खदेड़ नहीं दिया जाता । ऐसा करने से उस पवित्र भूमि पर रह रही शत्रु-सेनाओं को खाद्य सामग्री न मिल पायेगी । अत: निशचय ही उनकी शक्ति क्षीण होगी । भूखों मरते उन्हें यहाँ से भागना ही पड़ेगा । मैं यह तो नहीं कहता कि यह कोई बहुत उपयोगी उपाय है, फिर भी इस प्रकार हम शत्रुओं की शक्ति को घटा अवश्य सकते है ।”
“आपकी योजना बिलकुल ठीक है ।” मन्ना जी ने समर्थन करते हुए कहा – “पर यह सब आप इस नहीं राजधानी कुम्भलगढ़ में भी तो कर सकते है । यह स्थान भी तो पहाड़ों और जंगलों के कारन काफी सुरक्षित है, महाराणा !”
“फिर राजधानी !” प्रताप ने खिन्नता से हंसते हुए फिर कहा -“हम आजकल कुम्भलगढ़ में रह रहे हैं, वह भी झोंपड़ी बनाकर, तो क्या इसी से तुम इसे राजधानी कहना चाहते हो, मन्ना भाई ? चित्तौडगढ़ के पतन के बाद पिताश्री ने उदयपुर को राजधानी बनाया था, पर आज वहां और उसके आस-पास के सारे प्रदेश पर तो स्वाधीनता के शत्रुओं के झंडे लहरा रहे हैं । कितनी विवशता है हमारी ! जो कुछ हमारा है, उसे भी हम केवल दूर से ही देख सकते हैं । इशारे से ही कह सकते हैं कि वह हमारा है —हुं ! मैं महाराणा हूँ और मेरी भी कोई राजधानी है —वाह ! जहाँ मुझे रात आ जाएगी, वहीँ मेरी राजधानी होगी । याद रखो मन्ना भाई, हमें एकदम नए सिरे से राष्ट्र का निर्माण करना है, राजधानियों के चक्कर में नहीं पड़ना है । देश का हर भाग हमारी राजधानी है ।”
तब तक अन्य लोग भी आ गए थे । कुंवर शक्ति सिंह, राजगुरु, महामंत्री, शक्तावत कृष्णसिंह, राठौर तेजसिंह तथा अन्य अनेक सामंत-सरदार वहीँ आ पहुंचे थे । महाराणा प्रताप ने महामंत्री की ओर देखते हुए पूछा —
“अहेरिया (शिकार) की सारी व्यवस्था हो गई क्या, महामंत्री जी ?”
2 Responses
I want to send you an award for most helpful inetenrt writer.
Thanks Toshiaki